Friday, February 24, 2012

राधाकुण्ड / Radha Kund

पद्म पुराण में कहा गया है कि जिस प्रकार समस्त गोपियों में राधाजी श्रीकृष्ण को सर्वाधिक प्रिय हैं, उनकी सर्वाधिक प्राणवल्लभा हैं, उसी प्रकार राधाजी का प्रियकुण्ड भी उन्हें अत्यन्त प्रिय है। और भी वराह पुराण में है कि* हे श्रीराधाकुण्ड! हे श्रीकृष्णकुण्ड! आप दोनों समस्त पापों को क्षय करने वाले तथा अपने प्रेमरूप कैवल्य को देने वाले हैं। आपको पुन:-पुन: नमस्कार है इन दोनों कुण्डों का माहत्म्य विभिन्न पुराणों में प्रचुर रूप से उल्लिखित है। श्री रघुनाथदास गोस्वामी यहाँ तक कहते हैं कि ब्रजमंडल की अन्यान्य लीलास्थलियों की तो बात ही क्या, श्री वृन्दावन जो रसमयी रासस्थली के कारण परम सुरम्य है तथा श्रीमान गोवर्धन भी जो रसमयी रास और युगल की रहस्यमयी केलि–क्रीड़ा के स्थल हैं, ये दोनों भी श्रीमुकुन्द के प्राणों से भी अधिक प्रिय श्रीराधाकुण्ड की महिमा के अंश के अंश लेश मात्र भी बराबरी नहीं कर सकते। ऐसे श्रीराधाकुण्ड में मैं आश्रय ग्रहण करता हूँ।



श्रीराधाकुण्ड गोवर्धन से प्राय: 3 मील उत्तर–पूर्व कोण में स्थित है। गाँव का नाम आरिट है। यहीं अरिष्टासुर का वध हुआ था। कंस का यह अनुचर बैल या साँड का रूप धारण कर कृष्ण को मारना चाहता था, किन्तु कृष्ण ने यहीं पर इसका वध कर दिया था। वृन्दावन और मथुरा दोनों से यह 14 मील की दूरी पर अवस्थित है। श्रीराधाकुण्ड श्रीराधाकृष्ण युगल के मध्याह्रक–लीलाविलासका स्थल है। यहाँ श्रीराधाकृष्ण की स्वच्छन्दतापूर्वक नाना प्रकार की केलि–क्रीड़ाएँ सम्पन्न होती हैं। जो अन्यत्र कहीं भी सम्भव नहीं है। इसलिए इसे नन्दगाँव, बरसाना, वृन्दावन और गोवर्धन से भी श्रेष्ठ भजन का स्थल माना गया है। इसलिए श्रीराधाभाव एवं कान्ति सुवलित श्री चैतन्य महाप्रभु ने स्वयं इस परमोच्च भावयुक्त रहस्यमय स्थल का प्रकाश किया है। उनसे पूर्व श्रीमाधवेन्द्रपुरी , श्रीलोकनाथ गोस्वामी, श्रीभूगर्भ गोस्वामी श्री ब्रज में आये और कृष्ण की विभिन्न लीलास्थलियों का प्रकाश किया, किन्तु उन्होंने भी इस परमोच्च रहस्यमयी स्थली का प्रकाश नहीं किया। स्वयं श्रीराधाकृष्ण मिलिततनु श्रीगौरसुन्दर ने ही इसका प्रकाश किया।

कुसुम सरोवर Kusum Sarowar


गोवर्धन से लगभग 2 किलोमीटर दूर राधाकुण्ड के निकट स्थापत्य कला के नमूने का एक समूह जवाहर सिंह द्वारा अपने पिता सूरजमल ( ई.1707-1763) की स्मृति में बनवाया गया। ई. 1675 से पहले यह कच्चा कुण्ड था जिसे ओरछा के राजा वीर सिंह ने पक्का कराया उसके बाद राजा सूरजमल ने इसे अपनी रानी किशोरी के लिए बाग़-बगीचे का रूप दिया और इसे अधिक सुन्दर और मनोरम स्थल बना दिया ।
  • बाद में जवाहर सिंह ने इसे अपने माता पिता के स्मारक का रूप दे दिया । मुख्य स्मारक 57 फीट वर्गाकार है । स्मारक का सबसे उत्कृष्ट भाग इसकी कुर्सी है जोकि रूपरेखा में सुस्पष्ट और परिष्कृति में उत्कृष्ट है। राजा के स्मारक के बगल में दोनों ओर कुछ छोटे आकार में उनकी रानियों, हँसिया और किशोरी की छतरियाँ बनी हैं। स्मारक 460 फीट लम्बे चबूतरे पर हैं । इसकी पिछली दीवार दोनों किनारों पर पर्दे के सदृष्य प्रतीत होती है और विभिन्न रूपरेखा की दो मंजिली नौ छतरियाँ अग्रभाग में उभार प्रदर्शन को निर्मित की गई हैं। रानी हंसिया के स्मारक के सन्निकट एक विश्वसनीय दासी की छतरी भी है ।
  • इसके पीछे एक विस्तीर्ण बगीचा है और सामने की ओर वेदिका के निचले हिस्से पर एक मनोरम तालाब है, जिसे कुसुम सरोवर कहा जाता है। यह सरोवर 460 फीट वर्गाकार है। इसके पत्थरों के सोपान चारों ओर मध्यभाग में टूटे हैं और चार छोटे आकार के कक्ष आच्छादित दीवार के साथ पानी में सरोवर जल के 60 फीट अन्दर तक बने हैं। इसके उत्तर में जवाहर सिंह की छतरी निर्माण के लिए प्रगति हुई थी किन्तु तभी मुसलमानों के आक्रमण के चलते उसका दुबारा निर्माण कार्य शुरू नहीं किया जा सका। उसी ओर झील के घाट क्षतिग्रस्त है। कहा जाता है कि इसके निर्माण के कुछ वर्ष पश्चात ही गोसांई हिम्मत बहादुर निर्माण सामग्री वृन्दावन में घाटों का निर्माण कराने के लिए ले गया। आज भी घाट उसकी स्मृति में कायम है।
  • कुसुम सरोवर गोवर्धन के परिक्रमा मार्ग में स्थित एक रमणीक स्थल है जो अब सरकार के संरक्षण में है। उचित देखभाल न होने के कारण अपनी भव्यता और रमणीकता खोता जा रहा है।


दर्शन का क्रम

यहाँ दर्शन का क्रम प्राय: गर्मी में अक्षय तृतीया से हरियाली तीज तक प्रात: 6 बजे से 12 बजे तक दोपहर 4 बजे से 5 बजे तक एवं सायं 7 बजे से 10 तक होते हैं। हरियाली तीज से प्रात: 6 से 11 एवं दोपहर 3-4 बजे तक एवं रात्रि 6-1/2 से 9 तक होते हैं। मन्दिर में समय-समय पर दर्शन, एवं उत्सवों के अनुरूप यहाँ की समाज गायकी अत्यन्त प्रसिद्ध है। यहाँ की साँझी कला जिसका केन्द्र मन्दिर ही है अत्यन्त प्रसिद्ध है। बलदेव पटेबाजी के अखाड़ेबन्दी (जिसमें हथियार चलाना लाठी भाँजना आदि) का बड़ा शौक़ है समस्त मथुरा जनपद एवं पास-पड़ौसी ज़िलों में भी यहाँ का `काली` का प्रदर्शन अत्यन्त उत्कृष्ट कोटि का है। बलदेव के मिट्टी के बर्तन बहुत प्रसिद्ध हैं। यहाँ का मुख्य प्रसाद माखन मिश्री तथा श्री ठाकुरजी को भाँग का भोग लगने से यहाँ प्रसाद रूप में भाँग पीने के शौक़ीन लोगों की भी कमी नहीं। भाँग तैयार करने के भी कितने ही सिद्ध हस्त-उस्ताद हैं यहाँ की समस्त परम्पराओं का संचालन आज भी मन्दिर से होता है। यदि सामंती युग का दर्शन करना हो तो आज भी बलदेव में प्रत्यक्ष हो सकता है। आज भी मन्दिर के घंटे एवं नक्कारखाने में बजने वाली बम्ब की आवाज से नगर के समस्त व्यापार व्यवहार चलते हैं।



महामना मालवीय जी, पं0 मोतीलाल नेहरू, जवाहरलाल नेहरू, मोहनदास करमचन्दगाँधी (बापू) माता कस्तूरबा, राष्ट्रपति डॉ॰ राजेन्द्र प्रसाद, राजवंशी देवी जी, डॉ॰ राधाकृष्णजी, सरदार बल्लभ भाई पटेल, मोरार जी देसाई, दीनदयालजी उपाध्याय, जैसे श्रेष्ठ राजनीतिज्ञ, भारतेन्दु बाबू हरिशचन्द्रजी, हरिओमजी, निरालाजी, भारत के मुख्य न्यायाधीश जास्टिस बांग्चू के0 एन0 जी जैसे महापुरुष बलदेव दर्शनार्थ पधारते रहे हैं। जिनके दर्शनार्थ पधारने के दस्तावेज आज भी सुरक्षित हैं।

मूर्ति का प्राकट्य

इस बलदेव मूर्ति के प्राकट्य का भी एक बहुत रोचक इतिहास है। मध्ययुग का समय था मुग़ल साम्राज्य का प्रतिष्ठा सूर्य मध्यान्ह में था। अकबर अपने भारी श्रम, बुद्धिचातुर्य एवं युद्ध कौशल से एक ऐसी सल्तनत की प्राचीर के निर्माण में रत था जो कि उसके कल्पना लोक की मान्यता के अनुसार कभी भी न ढहे और पीढी-दर-पीढी मुग़लिया ख़ानदान हिन्दुस्तान की सरज़मीं पर निष्कंटक अपनी सल्तनत को क़ायम रखकर गद्दी एवं ताज का उपभोग करते रहे। एक ओर यह मुग़लों की स्थापना का समय था दूसरी ओर मध्ययुगीन धर्माचार्य एवं सन्तों के अवतरण तथा अभ्युदय का स्वर्ण युग। ब्रज मण्डल में तत्कालीन धर्माचार्यों में महाप्रभु बल्लभाचार्य, श्री निम्बकाचार्य एवं चैतन्य संप्रदाय की मान्यताएं अत्यन्त लोकप्रिय थीं। किसी समय गोवर्धन की तलहटी में एक बहुत प्राचीन तीर्थ-स्थल सूर्यकुण्ड एवं उसका तटवर्ती ग्राम भरना-खुर्द (छोटा भरना) था। इसी सूर्यकुण्ड के घाट पर परम सात्विक ब्राह्मण वंशावतंश गोस्वामी कल्याण देवाचार्य तपस्या करते थे। उनका जन्म भी इसी ग्राम में इभयराम जी के घर में हुआ था। वे वंश-तंश श्री बलदेवजी के अनन्य अर्चक थे।



एक दिन श्री कल्याण-देवजी को ऐसी अनुभूति हुई कि उनका अन्तर्मन तीर्थाटन का आदेश दे रहा है। कुछ समय यों-ही बिताया किन्तु स्फुरणा बलवती ही होती जाती। अत: कल्याण-देवजी ने जगदीश यात्रा का निश्चय कर घर से प्रस्थान कर दिया श्री गिर्राज परिक्रमा कर मानसी गंगा स्नान किया और फिर पहुँचे मथुरा, यमुना स्नान, दर्शनकर आगे बढ़े और पहुँचे विद्रुमवन जहाँ आज का वर्तमान बल्देव नगर है। यहाँ रात्रि विश्राम किया। सघन वट-वृक्षों की छाया तथा सरोवर का किनारा ये दोनों स्थितियाँ उनको रमीं। फलत: कुछ दिन यहीं तप करने का निश्चय किया। एक दिन अपने आन्हिक कर्म से निवृत हुये ही थे कि दिव्य हल-मूसलधारी भगवान श्री बलराम उनके सम्मुख प्रकट हुये तथा बोले कि मैं तुम्हारी तपस्या से प्रसन्न हूँ, वर माँगो। कल्याण-देवजी ने करबद्ध प्रणाम कर निवेदन किया कि प्रभु आपके नित्य दर्शन के अतिरिक्त मुझे कुछ भी अभीष्ट नहीं हैं। अत: आप नित्य मेरे घर विराजें। बलदेवजी ने तथास्तु कहकर स्वीकृति दी और अन्तर्धान हो गये। साथ ही यह भी आदेश किया कि 'जिस प्रयोजन हेतु जगदीश यात्रा कर रहे हो, वे सभी फल तुम्हें यहीं मिलेंगे, इस हेतु इसी वट-वृक्ष के नीचे मेरी एवं श्री रेवती की प्रतिमाएं भूमिस्थ हैं, उनका प्राकट्य करो'। अब तो कल्याण-देवजी की व्यग्रता बढ गई और जुट गये भूमि के खोदने में, जिस स्थान का आदेश श्री बलराम|दाऊ जी ने किया था।



इधर एक और विचित्र आख्यान उपस्थित हुआ कि जिस दिन श्री कल्याण-देवजी को साक्षात्कार हुआ उसी पूर्व रात्रि को गोकुल में श्रीमद् बल्लभाचार्य महाप्रभु के पौत्र गोस्वामी गोकुलनाथजी को स्वप्न हुआ कि 'जो श्यामा गौ के बारे में आप चिन्तित हैं वह नित्य दूध मेरी प्रतिमा ऊपर स्त्रवित कर देती है। ग्वाला निर्दोष है। मेरी प्रतिमाएं विद्रुमवन में वट-वृक्ष के नीचे भूमिस्थ हैं प्राकट्य कराओ ' यह श्यामा गौ सद्य: प्रसूता होने के बावजूद दूध नहीं देती थी। महाराज श्री को दूध के बारे ग्वाला के ऊपर सन्देह होता था। प्रभु की आज्ञा से गोस्वामीजी ने उपर्युक्त स्थल पर जाने का निर्णय किया। वहाँ जाकर देखा कि श्री कल्याण-देवजी मूर्तियुगल को भूमि से खोदकर निकाल चुके हैं। वहाँ पहुँच नमस्कार अभिवादन के उपरान्त दोनों ने अपने-अपने वृतान्त सुनाये। अत्यन्त हर्ष विह्वल धर्माचार्य हृदय को विग्रहों के स्थापन के निर्णय की चिन्ता हुई और निश्चय किया कि इस घोर जंगल से मूर्तिद्वय को हटाकर क्यों न श्री गोकुल में प्रतिष्ठित किया जाय। एतदर्थ अनेक गाढ़ा मँगाये किन्तु मूर्ति अपने स्थान से, कहते हैं कि चौबीस बैल और अनेक व्यक्तियों के द्वारा हटाये जाने पर भी, टस से मस न हुई और इतना श्रम व्यर्थ गया। हार मानकर यही निश्चय किया गया कि दोनों मूर्तियों को अपने प्राकट्य के स्थान पर ही प्रतिष्ठित कर दिया जाय। अत: जहाँ श्रीकल्याण-देव तपस्या करते थे उसी पर्णकुटी में सर्वप्रथम स्थापना हुई जिसके द्वारा कल्याण देवजी को नित्य घर में निवास करने का दिया गया, वरदान सफल हुआ।



यह दिन संयोगत: मार्गशीर्ष मास की पूर्णमासी थी। षोडसोपचार क्रम से वेदाचार के अनुरूप दोनों मूर्तियों की अर्चना को गई तथा सर्वप्रथम श्री ठाकुरजी को खीर का भोग रखा गया, अत: उस दिन से लेकर आज पर्यन्त प्रतिदिन खीर भोग में अवश्य आती है। गोस्वामी गोकुलनाथजी ने एक नवीन मंदिर के निर्माण का भार वहन करने का संकल्प लिया तथा पूजा अर्चना का भार श्रीकल्याण-देवजी ने। उस दिन से अद्यावधि कल्याण वंशज ही श्री ठाकुरजी की पूजा अर्चना करते आ रहे हैं। यह दिन मार्ग शीर्ष पूर्णिमा सम्वत् 1638 विक्रम था। एक वर्ष के भीतर पुन: दोनों मूर्तियों को पर्णकुटी से हटाकर श्री गोस्वामी महाराजश्री के नव-निर्मित देवालय में, जो कि सम्पूर्ण सुविधाओं से युक्त था, मार्ग शीर्ष पूर्णिमा संवत 1639 को प्रतिष्ठित कर दिया गया। यह स्थान कहते हैं भगवान बलराम की जन्म-स्थली एवं नित्य क्रीड़ा स्थली है पौराणिक आख्यान के अनुसार यह स्थान नन्द बाबा के अधिकार क्षेत्र में था। यहाँ बाबा की गौ के निवास के लिये बड़े-बड़े खिरक निर्मित थे।



मगधराज जरासंध के राज्य की पश्चिमी सीमा यहाँ लगती थीं, अत: यह क्षेत्र कंस के आतंक से प्राय: सुरक्षित था। इसी निमित्त नन्द बाबा ने बलदेव जी की माता रोहिणी को बलदेवजी के प्रसव के निमित इसी विद्रुमवन में रखा था और यहीं बलदेवजी का जन्म हुआ जिसके प्रतीक रूप रीढ़ा (रोहिणेयक ग्राम का अपभ्रंश तथा अबैरनी, बैर रहित क्षेत्र) दोनों ग्राम आज तक मौजूद हैं।



धीरे-धीरे समय बीत गया बलदेवजी की ख्याति एवं वैभव निरन्तर बढ़ता गया और समय आ गया धर्माद्वेषी शंहशाह औरंगजेब का। जिसका मात्र संकल्प समस्त हिन्दू देवी-देवताओं की मूर्ति भंजन एवं देव स्थान को नष्ट-भ्रष्ट करना था। मथुरा के केशवदेव मन्दिर एवं महावन के प्राचीनतम देव स्थानों को नष्ट-भ्रष्ट करता आगे बढा तो उसने बलदेव।जी की ख्याति सुनी व निश्चय किया कि क्यों न इस मूर्ति को तोड़ दिया जाय। फलत: मूर्ति भंजनी सेना को लेकर आगे बढ़ा। कहते हैं कि सेना निरन्तर चलती रही जहाँ भी पहुँचते बलदेव की दूरी पूछने पर दो कोस ही बताई जाती जिससे उसने समझा कि निश्चय ही बल्देव कोई चमत्कारी देव विग्रह है, किन्तु अधमोन्मार्द्ध सेना लेकर बढ़ता ही चला गया जिसके परिणाम-स्वरूप कहते हैं कि भौरों और ततइयों (बेर्रा) का एक भारी झुण्ड उसकी सेना पर टूट पडा जिससे सैकडों सैनिक एवं घोडे उनके देश के आहत होकर काल कवलित हो गये। औरंगजेब के अन्तर ने स्वीकार किया देवालय का प्रभाव। और शाही फ़रमान जारी किया जिसके द्वारा मंदिर को 5 गाँव की माफी एवं एक विशाल नक्कारखाना निर्मित कराकर प्रभु को भेंट किया एवं नक्कारखाना की व्यवस्था हेतु धन प्रतिवर्ष राजकोष से देने के आदेश प्रसारित किया। वहीं नक्कारखाना आज भी मौजूद है और यवन शासक की पराजय का मूक साक्षी है।

इसी फरमान-नामे का नवीनीकरण उसके पौत्र शाह आलम ने सन् 1196 फसली की ख़रीफ़ में दो गाँव और बढ़ाकर यानी 7 गाँव कर दिया। जिनमें खड़ेरा, छवरऊ, नूरपुर, अरतौनी, रीढ़ा आदि जिसको तत्कालीन क्षेत्रीय प्रशासक (वज़ीर) नज़फ खाँ बहादुर के हस्ताक्षर से शाही मुहर द्वारा प्रसारित किया गया तथा स्वयं शाह आलम ने एक पृथक् से आदेश चैत सुदी 3 संवत 1840 को अपनी मुहर एवं हस्ताक्षर से जारी किया। शाह आलम के बाद इस क्षेत्र पर सिंधिया राजवंश का अधिकार हुआ। उन्होंने सम्पूर्ण जागीर को यथास्थान रखा एवं पृथक् से भोगराग माखन मिश्री एवं मंदिर के रख-रखाव के लिये राजकोष से धन देने की स्वीकृति दिनाँक भाद्रपद-वदी चौथ संवत 1845 को गोस्वामी कल्याण देवजी के पौत्र गोस्वामी हंसराजजी, जगन्नाथजी को दी। यह सारी जमींदारी आज भी मंदिर श्री दाऊ जी महाराज एवं उनके मालिक कल्याण वंशज, जो कि मंदिर के पण्डा पुरोहित कहलाते हैं, उनके अधिकार में है। मुग़ल काल में एक विशिष्ट मान्यता यह थी कि सम्पूर्ण महावन तहसील के समस्त गाँवों में से श्री दाऊजी महाराज के नाम से पृथक् देव स्थान खाते की माल गुजारी शासन द्वारा वसूल कर मंदिर को भेंट की जाती थी, जो मुग़लकाल से आज तक शाही ग्रांट के नाम से जानी जाती हैं, सरकारी खजाने से आज तक भी मंदिर को प्रतिवर्ष भेंट की जाती है।

श्री दाऊजी की मूर्ति

देवालय में पूर्वाभिमुख 2 फुट ऊँचे संगमरमर के सिंहासन पर स्थापित है। पौराणिक आख्यान के अनुसार भगवान श्री कृष्ण के पौत्र श्री वज्रनाभ ने अपने पूर्वजों की पुण्य स्मृति में तथा उनके उपासना क्रम को संस्थापित करने हेतु 4 देव विग्रह तथा 4 देवियों की मूर्तियाँ निर्माणकर स्थापित की थीं। जिनमें से श्री बलदेवजी का यही विग्रह है जो कि द्वापर युग के बाद कालक्षेप से भूमिस्थ हो गया था। पुरातत्ववेत्ताओं का मत है यह मूर्ति पूर्व कुषाण कालीन है जिसका निर्माण काल 2 सहस्र या इससे अधिक होना चाहिये। ब्रजमण्डल के प्राचीन देव स्थानों में यदि श्री बलदेवजी विग्रह को प्राचीनतम कहा जाय तो कोई अत्युक्ति नहीं। ब्रज के अतिरिक्त शायद कहीं इतना विशाल वैष्णव श्री विग्रह दर्शन को मिले। यह मूर्ति क़रीब 8 फुट ऊँची एवं साढे तीन फुट चौडी श्याम वर्ण की है। पीछे शेषनाग सात फनों से युक्त मुख्य मूर्ति की छाया करते हैं। मूर्ति नृत्य मुद्रा में है, दाहिना हाथ सिर से ऊपर वरद मुद्रा में है एवं बाँये हाथ में चषक है। विशाल नेत्र, भुजाएं-भुजाओं में आभूषण, कलाई में कंडूला उत्कीर्णित हैं। मुकट में बारीक नक्काशी का आभास होता है पैरों में भी आभूषण प्रतीत होते हैं तथा कटि प्रदेश में धोती पहने हुए हैं मूर्ति के कान में एक कुण्डल है तथा कण्ठ में वैजन्ती माला उत्कीर्णित हैं। मूर्ति के सिर के ऊपर से लेकर चरणों तक शेषनाग स्थितहै। शेष के तीन वलय हैं जो कि मूर्ति में स्पष्ट दिखाई देते हैं। और योगशास्त्र की कुण्डलिनी शक्ति के प्रतीक रूप हैं क्योंकि पौराणिक मान्यता के अनुसार बलदेव जी शाक्ति के प्रतीक योग एवं शिलाखण्ड में स्पष्ट दिखाई देती हैं जो कि सुबल, तोष एवं श्रीदामा सखाओं की हैं। बलदेवजी के सामने दक्षिण भाग में दो फुट ऊँचे सिंहासन पर रेवती जी की मूर्ति स्थापित हैं जो कि बलदेव जी के चरणोन्मुख है और रेवती जी के पूर्ण सेवा-भाव की प्रतीक है। यह मूर्ति क़रीब पाँच फुट ऊँची है। दाहिना हाथ वरद मुद्रा में तथा वाम हस्त कटि प्रदेश के पास स्थित है। इस मूर्ति में ही सर्पवलय का अंकन स्पष्ट है। दोनों भुजाओं में, कण्ठ में, चरणों में आभूषणों का उत्कीर्णन है। उन्मीलित नेत्रों एवं उन्नत उरोजों से युक्त विग्रह अत्यन्त शोभायमान लगता हैं।

वैदिक धर्म के प्रचार एवं अर्चना का आरम्भ चर्तुव्यूह उपासना से होता है जिसमें संकर्षण प्रधान हैं। ऐतिहासिक दृष्टिकोण से देखा जाय तो ब्रजमण्डल के प्राचीनतम देवता बलदेव ही हैं। सम्भवत: ब्रजमण्डल में बलदेवजी से प्राचीन कोई देव विग्रह नहीं। ऐतिहासिक प्रमाणों में चित्तौड़ के शिलालेखों में जो कि ईसा से पाँचवी शताब्दी पूर्व के हैं बलदेवोपासना एवं उनके मन्दिर को इंगित किया है। अर्पटक, भोरगाँव नानाघटिका के शिलालेख जो कि ईसा के प्रथम द्वितीय शाताब्दी के हैं, जुनसुठी की बलदेव मूर्ति शुंग कालीन है तथा यूनान के शासक अगाथोक्लीज की चाँदी की मुद्रा पर हलधारी बलराम की मूर्ति का अंकन सभी बलदेव जी की पूजा उपासना एवं जनमान्यओं के प्रतीक हैं।

श्री दाऊजी का मन्दिर: बलदेव / Dauji Temple Baldev

यह स्थान मथुरा जनपद में ब्रजमंडल के पूर्वी छोर पर स्थित है। मथुरा से 21 कि॰मी॰ दूरी पर एटा-मथुरा मार्ग के मध्य में स्थित है। मार्ग के बीच में गोकुल एवं महावन जो कि पुराणों में वर्णित वृहद्वन के नाम से विख्यात है, पड़ते हैं। यह स्थान पुराणोक्त विद्रुमवन के नाम से निर्दिष्ट है। इसी विद्रुभवन में भगवान श्री बलराम जी की अत्यन्त मनोहारी विशाल प्रतिमा तथा उनकी सहधर्मिणी राजा ककु की पुत्री ज्योतिष्मती रेवती जी का विग्रह है। यह एक विशालकाय देवालय है जो कि एक दुर्ग की भाँति सुदृढ प्राचीरों से आवेष्ठित है। मन्दिर के चारों ओर सर्प की कुण्डली की भाँति परिक्रमा मार्ग में एक पूर्ण पल्लवित बाज़ार है। इस मन्दिर के चार मुख्य दरवाजे हैं, जो क्रमश: सिंहचौर, जनानी ड्योढी, गोशाला द्वार या बड़वाले दरवाज़े के नाम से जाने जाते हैं। मन्दिर के पीछे एक विशाल कुण्ड है जो कि बलभद्र कुण्ड के नाम से पुराण वर्णित है। आजकल इसे क्षीरसागर के नाम से पुकारते हैं।

गोविन्द घाट

रीवल्लभाचार्यजी जब ब्रज में आये, तब यमुना के इस घाट का दर्शन कर बड़े आकर्षित हुए। उन्होंने बड़े-बूढ़े ब्रजवासियों से सुना कि पास ही नन्दबाबा की खिड़क थी और यह घाट जहाँ वह बैठे हैं, वह घाट गोविन्द घाट के नाम से विख्यात है। श्रीवल्लभाचार्यजी उस स्थान का दर्शन कर इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने इस घाट पर शमीवृक्ष के नीचे श्रीमद्भागवत का सप्ताह-पारायण किया।


  • गोकुलनाथजी का बाग,
  • बाजनटीला,
  • सिंहपौड़ी,
  • यशोदाघाट,
  • श्रीविट्ठलनाथ जी का मन्दिर,
  • श्रीमदनमोहन जी का मन्दिर,
  • श्रीमाधवराय जी का मन्दिर,
  • श्रीगोकुलनाथ जी का मन्दिर,
  • श्रीनवनीतप्रिया जी का मन्दिर,
  • श्रीद्वारकानाथजी का मन्दिर,
  • ब्रह्मछोकरा वृक्ष,
  • श्रीगोकुलचन्द्रमाजी का मन्दिर,
  • श्रीमथुरानाथजी का मन्दिर तथा
  • श्रीनन्दमहाराज जी के छकड़ा रखने आदि स्थान दर्शनीय हैं। गोकुल के सामने यमुना के उसपार नौरंगाबाद गाँव है। उसमें श्रीगंगा जी का मन्दिर तथा दूसरे दर्शनीय स्थान हैं।

गोकुल / Gokul

यह स्थल मथुरा से 15 किमी की दूरी पर यमुना के पार स्थित है। यह वैष्णव तीर्थ है। यथार्थ महावन और गोकुल एक ही है। नन्द बाबा अपने परिजनों को लेकर नन्दगाँव से वृहद्वन या महावन में बस गये। गो, गोप, गोपी आदि का समूह वास करने के कारण महावन को ही गोकुल कहा गया है। नन्दबाबा के समय गोकुल नाम का कोई पृथक् रूप में गाँव या नगर नहीं था। यथार्थ में यह गोकुल आधुनिक बस्ती है। यहाँ पर नन्दबाबा की गऊओं का खिड़क था। आज से लगभग पाँच सौ पच्चीस वर्ष पहले श्री चैतन्य महाप्रभु के ब्रज आगमन के पश्चात श्री वल्लभाचार्य ने यमुना के इस मनोहर तट पर श्रीमद्भागवत का पारायण किया था। इनके पुत्र श्री विट्ठलाचार्य और उनके पुत्र श्रीगोकुलनाथजी की बैठकें भी यहाँ पर है। असल में श्रीविट्ठलनाथ जी ने औरंगजेब को चमत्कार दिखला कर इस स्थान का अपने नाम पर पट्टा लिया था। उन्होंने ही इस गोकुल को बसाया। उनके पश्चात श्रीगोकुलनाथ के पुत्र, परिवारों के सहित इस गोकुल में ही रहते थे। श्रीवल्लभकुल के गोस्वामी गोकुल में ही रहते थे। उन्होंने यहाँ पर मथुरेशजी, विट्ठलनाथ जी, द्वारिकाधीश जी, गोकुलचन्द्रमा जी, बालकृष्ण जी तथा श्रीमदनमोहन जी के श्रीविग्रहों को प्रतिष्ठा की थी। बाद में श्रीमथुरेश जी कोटा, श्रीविट्ठलनाथ जी नाथद्वारा, श्रीद्वारिकाधीश जी कांकरौली, गोकुलचन्द्रमा जी कामवन, श्रीबालकृष्ण जी सूरत और मदनमोहन जी कामवन पधार गये। श्रीवल्लभकुल के गोस्वामी गोकुल में रहने के कारण गोकुलिया गोस्वामी के नाम से प्रसिद्ध हैं। विश्वास किया जाता है कि भगवान कृष्ण ने यहाँ गौएँ चरायी थीं। कहा जाता है, श्री कृष्ण के पालक पिता नन्द जी का यहाँ गोष्ठ था। संप्रति वल्लभाचार्य, उनके पुत्र गुसाँई बिट्ठलनाथ जी एवं गोकुलनाथजी को बैठकें है। मुख्य मन्दिर गोकुलनाथ जी का है। यहाँ वल्लभकुल के चौबीस मन्दिर बतलाये जाते हैं। महालिंगेश्वर तन्त्र में शिवशतनाम स्तोत्र के अनुसार महादेव गोपीश्वर का यह स्थान है:
गोकुले गोपिनीपूज्यो गोपीश्वर इतीरित:।

यह ब्रज का बहुत महत्वपूर्ण स्थल है। यहीं पर रोहिणी ने बलराम को जन्म दिया था। बलराम देवकी के सातवें गर्भ में थे जिन्हें योगमाया ने आकर्षित करके रोहिणी के गर्भ में डाल दिया था। मथुरा में कृष्ण के जन्म के बाद कंस के सभी सैनिकों को नींद आ गयी और वासुदेव की बेड़ियाँ खुल गयी थीं। तब वासुदेव कृष्ण को गोकुल में नन्दराय के यहाँ छोड़ आये थे। नन्दराय जी के घर लाला का जन्म हुआ है, धीरे-धीरे यह बात गोकुल में फैल गयी। सभी गोपगण, गोपियाँ, गोकुलवासी खुशियाँ मनाने लगे। सभी घर, गलियाँ चौक आदि सजाये जाने लगे और बधाइयाँ गायी जाने लगीं। कृष्ण और बलराम का पालन पोषण यही हुआ और दोनों अपनी लीलाओं से सभी का मन मोहते रहे। घुटनों के बल चलते हुए दोनों भाई को देखना गोकुल वासियों को सुख देता था, वहीं माखन चुराकर कृष्ण ब्रज की गोपिकाओं के दुखों को हर लेते थे। गोपियाँ कृष्ण जी को छाछ और माखन का लालच देकर नचाती थीं तो कृष्ण जी बांसुरी की धुन से सभी को मन्त्र मुग्ध कर देते थे। कृष्ण ने गोकुल में रहते हुए पूतना, शकटासुर, तृणावर्त आदि असुरों को मोक्ष प्रदान किया। गोकुल से आगे 2 किमी. दूर महावन है। लोग इसे पुरानी गोकुल कहते हैं। यहाँ चौरासी खम्भों का मन्दिर, नन्देश्वर महादेव, मथुरा नाथ, द्वारिका नाथ आदि मन्दिर हैं। यह ब्रज का बहुत महत्वपूर्ण स्थल है। यहीं पर रोहिणी ने बलराम को जन्म दिया था। बलराम देवकी के सातवें गर्भ में थे जिन्हें योगमाया ने आकर्षित करके रोहिणी के गर्भ में डाल दिया था। मथुरा में कृष्ण के जन्म के बाद कंस के सभी सैनिकों को नींद आ गयी और वासुदेव की बेड़ियाँ खुल गयी थीं। तब वासुदेव कृष्ण को गोकुल में नन्दराय के यहाँ छोड़ आये थे। नन्दराय जी के घर लाला का जन्म हुआ है, धीरे-धीरे यह बात गोकुल में फैल गयी। सभी गोपगण, गोपियाँ, गोकुलवासी खुशियाँ मनाने लगे। सभी घर, गलियाँ चौक आदि सजाये जाने लगे और बधाइयाँ गायी जाने लगीं। कृष्ण और बलराम का पालन पोषण यही हुआ और दोनों अपनी लीलाओं से सभी का मन मोहते रहे। घुटनों के बल चलते हुए दोनों भाई को देखना गोकुल वासियों को सुख देता था, वहीं माखन चुराकर कृष्ण ब्रज की गोपिकाओं के दुखों को हर लेते थे। गोपियाँ कृष्ण जी को छाछ और माखन का लालच देकर नचाती थीं तो कृष्ण जी बांसुरी की धुन से सभी को मन्त्र मुग्ध कर देते थे। कृष्ण ने गोकुल में रहते हुए पूतना, शकटासुर, तृणावर्त आदि असुरों को मोक्ष प्रदान किया। गोकुल से आगे 2 किमी. दूर महावन है। लोग इसे पुरानी गोकुल कहते हैं। यहाँ चौरासी खम्भों का मन्दिर, नन्देश्वर महादेव, मथुरा नाथ, द्वारिका नाथ आदि मन्दिर हैं।