Monday, October 15, 2012

बांके बिहारी जी मन्दिर

बांके बिहारी मंदिर मथुरा ज़िले के वृंदावन धाम में रमण रेती पर स्थित है। यह भारत के प्राचीन और प्रसिद्ध मंदिरों में से एक है। बांके बिहारी कृष्ण का ही एक रूप है जो इसमें प्रदर्शित किया गया है। श्रीधाम वृन्दावन, यह एक ऐसी पावन भूमि है, जिस भूमि पर आने मात्र से ही सभी पापों का नाश हो जाता है। ऐसा आख़िर कौन व्यक्ति होगा जो इस पवित्र भूमि पर आना नहीं चाहेगा तथा श्री बाँकेबिहारी जी के दर्शन कर अपने को कृतार्थ करना नहीं चाहेगा। यह मन्दिर श्री वृन्दावन धाम के एक सुन्दर इलाके में स्थित है। कहा जाता है कि इस मन्दिर का निर्माण स्वामी श्री हरिदास जी के वंशजो के सामूहिक प्रयास से संवत 1921 के लगभग किया गया।

श्री बाँकेबिहारी जी का संक्षिप्त इतिहास


श्रीधाम वृन्दावन, यह एक ऐसी पावन भूमि है, जिस भूमि पर आने मात्र से ही सभी पापों का नाश हो जाता है। ऐसा आख़िर कौन व्यक्ति होगा जो इस पवित्र भूमि पर आना नहीं चाहेगा तथा श्री बाँकेबिहारी जी के दर्शन कर अपने को कृतार्थ करना नहीं चाहेगा। यह मन्दिर श्री वृन्दावन धाम के एक सुन्दर इलाके में स्थित है। कहा जाता है कि इस मन्दिर का निर्माण स्वामी श्री हरिदास जी के वंशजो के सामूहिक प्रयास से संवत 1921 के लगभग किया गया।
मन्दिर निर्माण के शुरूआत में किसी दान-दाता का धन इसमें नहीं लगाया गया। श्रीहरिदास स्वामी विषय उदासीन वैष्णव थे। उनके भजन–कीर्तन से प्रसन्न हो निधिवन से श्री बाँकेबिहारीजी प्रकट हुये थे। स्वामी हरिदास जी का जन्म संवत 1536 में भाद्रपद महिने के शुक्ल पक्ष में अष्टमी के दिन वृन्दावन के निकट राजापुर नामक गाँव में हूआ था। इनके आराध्यदेव श्याम–सलोनी सूरत बाले श्रीबाँकेबिहारी जी थे। इनके पिता का नाम गंगाधर एवं माता का नाम श्रीमती चित्रा देवी था। हरिदास जी, स्वामी आशुधीर देव जी के शिष्य थे। इन्हें देखते ही आशुधीर देवजी जान गये थे कि ये सखी ललिताजी के अवतार हैं तथा राधाष्टमी के दिन भक्ति प्रदायनी श्री राधा जी के मंगल–महोत्सव का दर्शन लाभ हेतु ही यहाँ पधारे है। हरिदासजी को रसनिधि सखी का अवतार माना गया है। ये बचपन से ही संसार से ऊबे रहते थे। किशोरावस्था में इन्होंने आशुधीर जी से युगल मन्त्र दीक्षा ली तथा यमुना समीप निकुंज में एकान्त स्थान पर जाकर ध्यान-मग्न रहने लगे। जब ये 25 वर्ष के हुए तब इन्होंने अपने गुरु जी से विरक्तावेष प्राप्त किया एवं संसार से दूर होकर निकुंज बिहारी जी के नित्य लीलाओं का चिन्तन करने में रह गये। निकुंज वन में ही स्वामी हरिदासजी को बिहारीजी की मूर्ति निकालने का स्वप्नादेश हुआ था। तब उनकी आज्ञानुसार मनोहर श्यामवर्ण छवि वाले श्रीविग्रह को धरा को गोद से बाहर निकाला गया। यही सुन्दर मूर्ति जग में श्रीबाँकेबिहारी जी के नाम से विख्यात हुई यह मूर्ति मार्गशीर्ष, शुक्ला के पंचमी तिथि को निकाला गया था। अतः प्राकट्य तिथि को हम विहार पंचमी के रूप में बड़े ही उल्लास के साथ मानते है।
श्री बाँकेबिहारी जी निधिवन में ही बहुत समय तक स्वामी जी द्वारा सेवित होते रहे थे। फिर जब मन्दिर का निर्माण कार्य सम्पन्न हो गया, तब उनको वहाँ लाकर स्थापित कर दिया गया। सनाढय वंश परम्परागत श्रीकृष्ण यति जी, बिहारी जी के भोग एवं अन्य सेवा व्यवस्था सम्भाले रहे। फिर इन्होंने संवत 1975 में हरगुलाल सेठ जी को श्रीबिहारी जी की सेवा व्यवस्था सम्भालने हेतु नियुक्त किया। तब इस सेठ ने वेरी, कोलकत्ता, रोहतक, इत्यादि स्थानों पर श्रीबाँकेबिहारी ट्रस्टों की स्थापना की। इसके अलावा अन्य भक्तों का सहयोग भी इसमें काफ़ी सहायता प्रदान कर रहा है। आनन्द का विषय है कि जब काला पहाड़ के उत्पात की आशंका से अनेकों विग्रह स्थानान्तरित हुए। परन्तु श्रीबाँकेविहारी जी यहाँ से स्थानान्तरित नहीं हुए। आज भी उनकी यहाँ प्रेम सहित पूजा चल रही हैं। कालान्तर में स्वामी हरिदास जी के उपासना पद्धति में परिवर्तन लाकर एक नये सम्प्रदाय, निम्बार्क संप्रदाय से स्वतंत्र होकर सखीभाव संप्रदाय बना। इसी पद्धति अनुसार वृन्दावन के सभी मन्दिरों में सेवा एवं महोत्सव आदि मनाये जाते हैं। श्रीबाँकेबिहारी जी मन्दिर में केवल शरद पूर्णिमा के दिन श्री श्रीबाँकेबिहारी जी वंशीधारण करते हैं। केवल श्रावन तीज के दिन ही ठाकुर जी झूले पर बैठते हैं एवं जन्माष्टमी के दिन ही केवल उनकी मंगला–आरती होती हैं । जिसके दर्शन सौभाग्यशाली व्यक्ति को ही प्राप्त होते हैं । और चरण दर्शन केवल अक्षय तृतीया के दिन ही होता है । इन चरण-कमलों का जो दर्शन करता है उसका तो बेड़ा ही पार लग जाता है।
स्वामी हरिदास जी संगीत के प्रसिद्ध गायक एवं तानसेन के गुरु थे। एक दिन प्रातःकाल स्वामी जी देखने लगे कि उनके बिस्तर पर कोई रजाई ओढ़कर सो रहा हैं।
यह देखकर स्वामी जी बोले– अरे मेरे बिस्तर पर कौन सो रहा हैं। वहाँ श्रीबिहारी जी स्वयं सो रहे थे। शब्द सुनते ही बिहारी जी निकल भागे। किन्तु वे अपने चुड़ा एवं वंशी, को विस्तर पर रखकर चले गये। स्वामी जी, वृद्ध अवस्था में दृष्टि जीर्ण होने के कारण उनकों कुछ नजर नहीं आय । इसके पश्चात श्री बाँकेबिहारीजी मन्दिर के पुजारी ने जब मन्दिर के कपाट खोले तो उन्हें श्री बाँकेविहारीजी मन्दिर के पुजारी ने जब मन्दिर में कपट खोले तो उन्हें श्रीबाँकेबिहारी जी के पलने में चुड़ा एवं वंशी नजर नहीं आयी। किन्तु मन्दिर का दरवाजा बन्द था। आश्चर्यचकित होकर पुजारी जी निधिवन में स्वामी जी के पास आये एवं स्वामी जी को सभी बातें बतायी। स्वामी जी बोले कि प्रातःकाल कोई मेरे पंलग पर सोया हुआ था। वो जाते वक़्त कुछ छोड़ गया हैं। तब पुजारी जी ने प्रत्यक्ष देखा कि पंलग पर श्रीबाँकेबिहारी जी की चुड़ा–वंशी विराजमान हैं। इससे प्रमाणित होता है कि श्रीबाँकेबिहारी जी रात को रास करने के लिए निधिवन जाते हैं। इसी कारण से प्रातः श्रीबिहारी जी की मंगला–आरती नहीं होती हैं। कारण–रात्रि में रास करके यहाँ बिहारी जी आते है। अतः प्रातः शयन में बाधा डालकर उनकी आरती करना अपराध हैं। स्वामी हरिदास जी के दर्शन प्राप्त करने के लिए अनेकों सम्राट यहाँ आते थे। एक बार दिल्ली के सम्राट अकबर, स्वामी जी के दर्शन हेतु यहाँ आये थे। ठाकुर जी के दर्शन प्रातः 9 बजे से दोपहर 12 बजे तक एवं सायं 6 बजे से रात्रि 6 बजे तक होते हैं। विशेष तिथि उपलक्ष्यानुसार समय के परिवर्तन कर दिया जाता हैं।
श्रीबाँकेबिहारी जी के दर्शन सम्बन्ध में अनेकों कहानियाँ प्रचलित हैं। जिनमें से एक तथा दो निम्नलिखित हैं– एक बार एक भक्तिमती ने अपने पति को बहुत अनुनय–विनय के पश्चात वृन्दावन जाने के लिए राजी किया। दोनों वृन्दावन आकर श्रीबाँकेबिहारी जी के दर्शन करने लगे। कुछ दिन श्रीबिहारी जी के दर्शन करने के पश्चात उसके पति ने जब स्वगृह वापस लौटने कि चेष्टा की तो भक्तिमति ने श्रीबिहारी जी दर्शन लाभ से वंचित होना पड़ेगा, ऐसा सोचकर वो रोने लगी। संसार बंधन के लिए स्वगृह जायेंगे, इसलिए वो श्रीबिहारी जी के निकट रोते–रोते प्रार्थना करने लगी कि– 'हे प्रभु में घर जा रही हुँ, किन्तु तुम चिरकाल मेरे ही पास निवास करना, ऐसा प्रार्थना करने के पश्चात वे दोनों रेलवे स्टेशन की ओर घोड़ागाड़ी में बैठकर चल दिये। उस समय श्रीबाँकेविहारी जी एक गोप बालक का रूप धारण कर घोड़ागाड़ी के पीछे आकर उनको साथ लेकर ले जाने के लिये भक्तिमति से प्रार्थना करने लगे। इधर पुजारी ने मंदिर में ठाकुर जी को न देखकर उन्होंने भक्तिमति के प्रेमयुक्त घटना को जान लिया एवं तत्काल वे घोड़ा गाड़ी के पीछे दौड़े। गाड़ी में बालक रूपी श्रीबाँकेबिहारी जी से प्रार्थना करने लगे। दोनों में ऐसा वार्तालाप चलते समय वो बालक उनके मध्य से गायब हो गया। तब पुजारी जी मन्दिर लौटकर पुन श्रीबाँकेबिहारी जी के दर्शन करने लगे।
इधर भक्त तथा भक्तिमति श्रीबाँकेबिहारी जी की स्वयं कृपा जानकर दोनों ने संसार का गमन त्याग कर श्रीबाँकेबिहारी जी के चरणों में अपने जीवन को समर्पित कर दिया। ऐसे ही अनेकों कारण से श्रीबाँकेबिहारी जी के झलक दर्शन अर्थात झाँकी दर्शन होते हैं।

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