Wednesday, October 5, 2011

लट्ठामार होली

बरसाना और नंदगाँव की लठमार होली तो जगप्रसिद्ध है। "नंदगाँव के कुँवर कन्हैया, बरसाने की गोरी रे रसिया" और ‘बरसाने में आई जइयो बुलाए गई राधा प्यारी’ गीतों के साथ ही ब्रज की होली की मस्ती शुरू होती है। वैसे तो होली पूरे भारत में मनाई जाती है लेकिन ब्रज की होली ख़ास मस्ती भरी होती है. वजह ये कि इसे कृष्ण और राधा के प्रेम से जोड़ कर देखा जाता है। उत्तर भारत के बृज क्षेत्र में बसंत पंचमी से ही होली का चालीस दिवसीय उत्सव आरंभ हो जाता है। नंदगाँव एवं बरसाने से ही होली की विशेष उमंग जागृत होती है। जब नंदगाँव के गोप गोपियों पर रंग डालते, तो नंदगांवकी गोपियां उन्हें ऐसा करनेसे रोकती थीं और न माननेपर लाठी मारना शुरू करती थीं। होली की टोलियों में नंदगाँव के पुरूष होते हैं क्योंकि कृष्ण यहीं के थे और बरसाने की महिलाएं क्योंकि राधा बरसाने की थीं। दिलचस्प बात ये होती है कि ये होली बाकी भारत में खेली जाने वाली होली से पहले खेली जाती है। दिन शुरू होते ही नंदगाँव के हुरियारों की टोलियाँ बरसाने पहुँचने लगती हैं. साथ ही पहुँचने लगती हैं कीर्तन मंडलियाँ। इस दौरान भाँग-ठंढई का ख़ूब इंतज़ाम होता है। ब्रजवासी लोगों की चिरौंटा जैसी आखों को देखकर भाँग ठंढई की व्यवस्था का अंदाज़ लगा लेते हैं। बरसाने में टेसू के फूलों के भगोने तैयार रहते हैं। दोपहर तक घमासान लठमार होली का समाँ बंध चुका होता है। नंदगाँव के लोगों के हाथ में पिचकारियाँ होती हैं और बरसाने की महिलाओं के हाथ में लाठियाँ, और शुरू हो जाती है होली।

कुछ समय बाद वहाँ महावन में भी पूतना, शकटासुर तथा तृणावर्त आदि दैत्यों के उत्पाद को देखकर व्रजेश्वर श्रीनन्दमहाराज अपने पुत्रादि परिवार वर्ग तथा गो, गोप, गोपियों के साथ छटीकरा ग्राम में, फिर वहाँ से काम्यवन, खेलनवन आदि स्थानों से होकर पुन: नन्दीश्वर (नन्दगाँव) में लौटकर यहीं निवास करने लगे। यहीं पर कृष्ण की बाल्य एवं पौगण्ड की बहुत सी लीलाएँ हुई। यहीं से गोपाष्टमी के दिन पहले बछड़ों और बछड़ियों को तथा दो–चार वर्षों के बाद गोपाष्टमी के दिन से ही कृष्ण और बलदेव सखाओं के साथ गायों को लेकर गोचारण के लिए जाने लगे। यहाँ नन्दगाँव में कृष्ण की बहुत सी दर्शनीय लीलास्थलियाँ है।

No comments:

Post a Comment